कुशीनगर (TV NEWS INDIA) बोधिसत्व बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर जी के दीक्षा भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर की 144 वां जयंती बुद्ध स्थली कुशीनगर में सोशल डिस्टेंसिंग के साथ मनाई गई।
भिक्षु चंद्रमणि के जीवन पर प्रकाश डालते हुए उनके शिष्य अग्ग महापंडित भदंत ज्ञानेश्वर ने कहा कि परम पूज्य भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर का जन्म 25 मई 1876 में वैशाख पूर्णिमा के 6 वें दिन के पश्चात ग्राम “पौ-औ” जिला अक्याब, वर्मा देश में हुआ था, इसलिए यह परम्परा बनी हुई कि “पूज्य गुरु भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर जयंती” का आयोजन बुद्ध जयंती के छठवें दिन प्रतिवर्ष कुशीनगर में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। पूज्य गुरु के पिता “ऊ चौ थों मौ था” तथा माता का नाम “दौ अबाउ” के ज्येष्ठ पुत्र थे।
परंपरानुसार जेष्ठ पुत्र या पुत्री के नाम के साथ “ऊ” जोड़ा जाता है। इसलिए नाम ‘ऊ साबाउ’ पड़ा। प्रारंभिक अध्ययन अपने चाचा भिक्षु ऊ चंदिमा के सानिध्य में किया। वर्मा की परंपरा के तहत प्रव्रज्या भिक्षु ऊ चन्दिमा द्वारा वर्ष 1888 में श्रामणेर दीक्षा हुई और उनका नाम “श्रामणेर चंदा” रक्खा गया, जो आगे जाकर भिक्षु चंद्रमणि नाम से विश्व विख्यात हुए। महाबोधि सोसायटी के संस्थापक अनागारिक धर्मपाल वर्मा (रंगून) गए। उनके विशेष आग्रह पर वहां से श्रामणेर चंदा और श्रामणेर सूरिया भारत आए। अराकान प्रांत से आने पर अनागारिक धर्मपाल और श्री ऑलकट से कोलकाता में मुलाकात हुई। उन्होंने वर्मी राजा तीबो द्वारा निर्मित धर्मशाला में लंकाद्वीप निवासी भिक्षु चंद्र ज्योति महास्थविर के साथ रहने का प्रबंध बोधगया मे किया। उसी वर्ष वर्मा के दो जौहरी तीर्थ यात्रा हेतु भारत आए। उन्होंने दोनों श्रामणेरों से प्रार्थना की कि वे उनके साथ कुशीनगर चलें।
परम पूज्य भिक्षु चंद्रमणि के लिए यह पहली यात्रा थी।कुशीनगर आकर पहली बार महापरिनिर्वाण स्थल को देखा तो वह भावुक हुए और अश्रुपूर्ण हो ‘शाक्यमुनि बुद्ध को वंदन-नमन किया। इसके बाद जब पुनः बोधगया वापस पहुंचे। उस समय वहां कुछ गुंडों द्वारा भिक्षु चंद्रज्योति महास्थविर के साथ मारपीट व अभद्रता की जिससे वह बहुत दुखी हुए और इसी कारण वहां से फिर कोलकाता चले गए। जिस समय अनागारिक धर्मपाल विश्वधर्म सम्मेलन (शिकागो) में सम्मिलित होने गए। उस समय वह अपनी संपूर्ण जिम्मेदारी परम पूज्य भिक्ष चंद्रमणि को देकर गए। अनागारिक धर्मपाल की वापसी पर भिक्षु चंद्रमणि ने वर्मा जाने की प्रबल इच्छा प्रकट की और वह अराकान वापस चले गए। कुछ समय बाद वह पुनः भारत वापस आए। इस बार वह एक धर्मशाला में रुके, एक वृद्ध भिक्षु के साथ रहते हुए संस्कृत का गहन अध्ययन कर रहे थे लेकिन शहर मे रहकर पढाई करना उनको पसंद नहीं था।
इसलिए भिक्षु महावीर ने उनके आगे के अध्ययन के लिए गाजीपुर के गहमर गाँव मे लखू चौबे के यहाँ भेज दिया। आपने वहा रहकर संस्कृत को सीखकर प्रकांड विद्वान बने। भिक्षु महावीर ने सेठ खिजारी बाबू के सहयोग से कुशीनगर के पुनः उद्धार में लग गए। कुछ समय बाद में भिक्षु चंद्रमणि भी वहां पहुंचे। दो वर्ष कुशीनगर में रहकर भिक्षु चंद्रमणि त्रिपिटक अध्ययन के लिए पुनः वर्मा चले गए। वहां वर्षावास समाप्त कर कुछ समय बाद रंगून से चटगांव से होते हुए कुशीनगर पहुंचे। पुनः वर्मा जाने के बाद सन 1930 में भिक्षु चंद्रमणि की उपसंपदा हुई। वह एक बार पुनः वर्मा गए और वर्षावास पूर्ण कर भारत वापस आए फिर वह आजीवन बुद्ध शासन को आगे बढ़ाने के धर्म प्रचार प्रसार में लग गये।
कुशीनगर मे रहते हुए उन्होंने बहुत से सामाजिक व शैक्षणिक क्षेत्र में उन्होंने अतुलनीय योगदान दिय। सिंहली भिक्षु श्रद्धानंद के सहयोग से पाठशाला की स्थापना की। भिक्षु श्रद्धानंद के आग्रहवश पाठशाला का नाम “भिक्षु चंद्रमणि निशुल्क पाठशाला” रखा गया। भिक्षु ऊ कित्तिमा के सानिध्य में सेठ श्री युगल किशोर बिरला के सहयोग से एक भव्य पाठशाला का निर्माण कराया गया, जो कि उत्तर प्रदेश की विभिन्न पाठशाला में उच्च स्थान प्राप्त पाठशाला बन गई। भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर ने सन 1924 में वैशाख पूर्णिमा को कुशीनगर में बुद्ध जयंती का आयोजन किया और “बौद्ध मेला” लगवाना प्रारम्भ किया। सन 1944 में भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर ने नेपाल में जाकर धम्म देशना के द्वारा स्थाविरवाद बौद्ध धम्म की पुनर्स्थपना की।
अब तक बौद्ध साहित्य से परिचित रहे लोगों के लिए आपने महा मंगलसूत्र, धम्मपद अट्ठकथा का हिंदी अनुवाद किया। परम पूज्य भिक्षु चंद्रमणि जी ने अपने जीवन में बहुत से अनाथों और असहाय- गरीब लोगों की सहायता की तथा तथागत बुद्ध की देशना “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” को चरितार्थ किया। आपने संपूर्ण जीवन को बुद्ध धम्म के विकास के लिए समर्पित कर दिया। अपनी सरस स्वभाव के कारण ही भारतीय संविधान के शिल्पकार, बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने 14 अक्टुबर 1956 को नागपुर की पावन भूमि पर आपसे दीक्षित हुए। 8 मई 1972 को परम पूज्य भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर निर्वाण को प्राप्त हुए, जिसके बाद गुरु शिष्य परंपरा का निर्माण करते हुए सुयोग्य भिक्षु अग्ग महापंडित भदन्त ज्ञानेश्वर महाथेरो उनके उत्तराधिकारी बने और उस परंपरा को निरंतर आगे बढ़ा रहे हैं।
पूज्य गुरु भिक्षु चंद्रमणि महास्थविर जी का 144 वां जन्मदिवस बड़ी सादगी पूर्वक गुरु जी के परम शिष्य, विश्व शांति नायक, भदंत ज्ञानेश्वर महाथेरो के सानिध्य में मनाया गया। इस पावन अवसर पर श्रद्धा सुमन अर्पित करने वालों में मुख्य रूप से भिक्षु शील प्रकाश महाथेरो, भिक्षु महेंद्र महाथेरो, भिक्षु नंदका, डॉ भिक्षु नन्द् रतन थेरो, भिक्षु सिलवंश, भिक्षु अशोक, भिक्षु आलोक, भिक्षु तेजेंद्र, भिक्षु धम्म मानो, भिक्षु नंदिया, भिक्षु खेमचरा, भिक्षुणी धम्मा नैना, उपासक नगीना मास्टर ,कमलेश शर्मा, पन्नालाल, बलविंदर गौतम, शिवकुमार, केशव प्रसाद, सुगन, सीताराम, फूलबदन बौद्ध आदि मौजूद रहे।
रिपोर्ट ब्यूरो कुशीनगर
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